कृषि प्रधान देश की पहचान व किसान की देश की प्रगति में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका के बाद भी देश में किसान आयोग का गठन क्यों नहीं?
कृषि प्रधान देश की पहचान व किसान की देश की प्रगति में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका के बाद भी देश में किसान आयोग का गठन क्यों नहीं?
कृषि प्रधान देश की पहचान होने के बाद भी हमारे देश में किसान आयोग का गठन क्यों नहीं किया गया है? यह बहुत बड़ा प्रश्न है, जबकि किसानों व सरकारों के बीच संवाद की कमी से हमेशा कृषि सुधार के लिए लाई जाने वाली नीतियों पर सरकार और किसानों के बीच लगातार टकराव देखने को मिला है। हाल ही में बात की जाए तो एक साल से ज्यादा समय तक चले किसान आन्दोलन में भी किसानों और सरकारों के बीच संवाद की कमी के कारण कृषि सुधार के लिए लाये गये तीनों कृषि कानून सुधार की जगह वापस हुए। इससे पहले RCEP मुक्त व्यापार समझौते पर भी सरकार को किसानों के साथ संवाद की कमी से पीछे हटना पड़ा। दोनों ही मामले में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी को अपना फैसला बदलने का निर्णय लेना पड़ा। पहले की भी सरकारों में विश्व व्यापार संगठन के दबाव में सरकारों ने किसानों से बिना राय लिए हुए बहुत सारे समझौतों पर हस्ताक्षर की कोशिश की या समझौते कर दिए, जिनका प्रभाव वर्तमान किसानों की आर्थिक परिस्थिति पर है और किसान आर्थिक असमानता का शिकार हो गए हैं। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार हर 31 मिनट में 1 किसान आत्महत्या कर रहा है, और OECD की रिपोर्ट कहती है की पिछले 17 सालों में न्यूनतम समर्थन मूल्य न मिलने से किसानों को लगभग 45 लाख करोड़ रूपए का घाटा हुआ। किसानों के लिए किसान आयोग के संघर्ष की कहानी बहुत लंबी है। सन 2006 में स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट में कहा गया कि किसान को लागत मूल्य का डेढ़ गुना फसल के उत्पादन का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलना चाहिए, लेकिन स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को पिछली व वर्तमान सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य के फार्मूले पर लागू करना उचित नहीं समझा। किसानों के जनसुनवाई के मुद्दों की बात की जाए तो उसकी बहुत सारी समस्याएं हैं मौसम की मार से फसल तबाह होने पर सरकार द्वारा प्रस्तावित बीमा फसल योजनाओं का लाभ न मिलना समय से सिंचाई के लिए रजवाहों व नहरों में पानी न आना, बिजली की दिक्कत, बिजली दरों का असामान्य तरीके से बढ़ना, खाद की कमी , फसल का उचित मूल्य न मिलने के कारण कर्जे तले दबना। सुप्रीम कोर्ट भी किसानों की हालत पर टिप्पणी कर चुका है कि सरकारें किसानों की समस्याओं का समाधान करने में असफल रही हैं। अगर सौ बात की एक बात की जाए तो किसान को उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने के कारण आर्थिक असमानता की तरफ धकेल दिया गया है, किसान विवश है और सोचता है कि मैं पूरे देश का पेट भरता हूं लेकिन जब मेरी बात आती है तो न कोई सरकार का प्रतिनिधि संवाद करता, ना मेरे दर्द को समझता, सीधे आदेश जारी करता है। किसान व्यापारियों का या उपभोक्ता का कोई विरोधी नहीं है वह पालक है, बशर्ते उसको फसल का उचित मूल्य मिले और सही नीतियों के माध्यम से वह सही मूल्य में उपभोक्ता ज्ञा व्यापारियों के पास पहुंचे, बस सरकार द्वारा नीतियों में सुधार की आवश्यकता है। वर्तमान परिस्थितियों की बात की जाए तो किसान को घाटे में पहुंचाने की जिम्मेदारी सरकारों की गलत नीतियों के कारण सरकार को को लेनी चाहिए। सरकार को किसानों की स्थिति में वास्तविक सुधार करना है तो वह एक बार किसानों का संपूर्ण कर्ज माफ कर केंद्रीय व राज्य स्तर पर किसान आयोग का गठन करे उसके अध्यक्ष व सदस्य किसान हों, किसानों की सिफारिश के आधार पर ही सरकार किसानों से संबंधित फैसले करे।
किसान आयोग सरकार और किसानों के बीच संवाद की एक अहम कड़ी साबित हो सकता है और भविष्य में किसानों से संबंधित फैसले लेने में कोई विशेष दिक्कत नहीं आएगी, सरकारी योजना का सही लाभ किसानों को मिल पाएगा। इस देश का किसान खुशहाल होगा तो बेरोजगारी व आर्थिक असमानता से भी देश को बड़ी राहत मिलेगी।
Written By:
राष्ट्रीय प्रवक्ता व मीडिया प्रभारी
भारतीय किसान यूनियन भानू
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