आर्थिक असमानता का शिकार किसान, यह राष्ट्र हित में नहीं!

बहुत ही प्रचलित ग्रामीण कहावत है कि "उत्तम खेती मध्यम बान निषिद्ध चाकरी भीख निदान" ! लेकिन आज के हालातों को देखते हुए यह कहावत विपरीत साबित हो रही है!
जहां 200 वर्ष गुलामी के पश्चात आजादी पाकर भारत ने कृषि क्षेत्र का ही सहारा लेकर इस देश को विकासशील देश की कतार में भारत सरकार खड़ा करने में सफल रही लेकिन लगता है कि आज हमारी सरकारें पिछले 30 सालों से फिर से वैश्विक नीतियों के दवाब में आकर अपनी कृषि प्रधान संस्कृति की पहचान को संकट में डाल रही हैं!
जिस देश की आधी से ज्यादा आबादी कृषि पर ही आधारित हो वहां आज हालात बद से बदतर हो गए हैं! हम पहले पिछले 20 सालों के हालात पर ही चर्चा करें तो, नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार हर 31 वें मिनट में एक अन्नदाता कर्ज के चलते आत्महत्या कर रहा है!  पिछले 30 सालों में 3.5 लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की हैं! NSSO 2013 के अनुसार किसान परिवार की सभी स्रोतों से आय औसतन 6426 रुपए प्रति महीने है जिसमें से 17 राज्यों में मात्र 1700 रुपए महीने के आस-पास है, अगर इसको प्रति व्यक्ति आय के तौर पर देखा जाए तो प्रति व्यक्ति की 1 दिन की आय ₹11 रुपए रोजाना बैठती है! अब इतनी कम आय में किसान कैसे अपने परिवार पालते होंगे यह सचमुच अकल्पनीय है!
ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक्स कोऑपरेशन एंड डेवलपमेंट की रिपोर्ट के अनुसार पिछले 17 सालों में किसानों को उनकी फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी न मिलने के कारण लगभग 45 लाख करोड़ का घाटा हुआ है इसको देखा जाए तो यह हमारे बजट से भी लगभग दो‌ गुना है!
90 के दशक में शिक्षा का निजीकरण हुआ तो आज आर्थिक तंगी के चलते गुणवत्तापूर्ण शिक्षा गरीब किसान से दूर चली गई! आज चिकित्सा के क्षेत्र में भले ही आयुष्मान योजना चल रही हो जहां 5 लाख तक का केंद्र सरकार कवर दे रही है लेकिन आज भी गंभीर बीमारियां में महंगा इलाज होने के कारण गरीब किसान को अपनी जमीन बेच कर या कर्जा लेकर इलाज कराना पड़ता है! 
आज नौकरियों की हालत देखी जाए तो सरकारों की हालत सही संकेत नहीं दे रही है कहीं पेंशन योजना खत्म करने की बात सरकारें कर रही हैं कहीं कॉन्ट्रैक्ट के आधार पर जिसे संविदा कहा जाता है उस पर इस देश के लाखों पढ़े-लिखे युवा सस्ते वेतन में मजदूरी करने को विवश है! आपने देखा होगा जो किसान अपनी खेती के सहारे अपने परिवार को स्वस्थ व खुशहाल रखते थे वह कई उदाहरण है कि आज बड़े बड़े शहरों की सोसायटीओं में अपनी पहचान छिपाकर सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करने को मजबूर हैं, क्योंकि वह खेत से किसान क्रेडिट कार्ड का कर्जा भरने में असमर्थ हो गए हैं! जो बातें सरकार ने शिक्षा के निजीकरण के समय कही थी के सरकारी विद्यालय चलते रहेंगे उन पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा वह कृषि क्षेत्र में सरकारों की नीतियों को ही देख सकते हैं कि किसान निजी करण की जद में कैसे आता जा रहा है! जो आज नीतियां भारत सरकार लागू कर रही है, वैसा पहले कई देशों में लागू भी किया जा चुका है वहां पर किसान सस्ते मजदूर बनकर रह गए हैं और कॉरपोरेट्स के हाथों में कृषि लगभग पूरी तरीके से चली गई है! सरकार कृषि सुधार के नाम पर जो नई कृषि कानून लेकर आई है उसमें मूल्य आश्वासन अधिनियम का जिक्र तो किया गया है लेकिन जो किसान अपने न्यूनतम समर्थन मूल्य का कानूनी आश्वासन चाहता है कि सरकार खरीदे या निजी व्यापारी खरीदे, लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम में ना खरीदे! और यह सरकार बार-बार वार्ता में मीडिया में कह भी रही है कि हम लिखित में आश्वासन देंगे तो सरकार इस पर एक्ट बनाकर किसान को विश्वास में ले सकती है! हालांकि सरकार ने तीनों कृषि कानूनों में कई संशोधन की बात कही है लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह होगा कि सरकार किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी दे फिर आगे की वार्ता करे!
मेरा मानना है कि यह किसान आंदोलन पिछले दो-तीन दशकों की सरकारों की गलत नीतियों का परिणाम है, इसलिए किसान का संपूर्ण कर्जा माफी के साथ, कृषि सुधार के लिए लाए गए तीनों कृषि कानूनों में सरकार किसानों के हितों का ध्यान रखे, कहीं इन तीनों कृषि कानूनों की वजह से हम खाद्यान्न संकट के उन हालातों में न आ जाएं, जहां सन् 1965 में अपने देश का पेट भरने के लिए हम को गेहूं  अपमानजनक शर्तों के साथ अमेरिका से आयात करना पड़ा था! उस समय देश के द्वितीय प्रधानमंत्री स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री जी ने जय जवान जय किसान का नारा दिया था तब, उन हालातों से सबक लेकर देश के किसान ने जवान ने इस राष्ट्र को खड़ा किया लेकिन आज आर्थिक असमानता के चलते लगभग कृषि घाटे का सौदा हो गई है, कहीं मौसम की मार है तो कहीं उपज का सही दाम नहीं मिलता! आज देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद 6% के आसपास ही हो पाती है अगर देश के अंदर कानून हो कि किसान की फसल न्यूनतम समर्थन मूल्य से व्यापारी हो या सरकार नीचे ना खरीदे तो कम से कम किसान को घाटे की खेती करने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ेगा! मैं सरकार से अपील करूंगा सरकार कृषि प्रधान देश की संस्कृति के अस्तित्व को बचाने के लिए नीतियां बनाएं जहां अन्नदाता को सम्मान व आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित हो, यह वही अन्नदाता है जब वैश्विक महामारी के दौर में भारत की जीडीपी को ऊपर ले कर आया था और हम अपने देश के अन्नदाता को गर्व से सलाम कर रहे थे कि हम पर अगले 2 सालों का भी खाद्यान्न उपलब्ध है! अन्नदाता ने अपने वोट के अधिकार का प्रयोग कर वर्तमान सरकारों को चुना है तो उसका हक भी है कि वह अपने अधिकारों का हनन नहीं होने दे! 
जय हिंद जय भारत!
जय जवान जय किसान!
केपी सिंह ठैनुआं
राष्ट्रीय अध्यक्ष, आईटी व मीडिया प्रकोष्ठ
भारतीय किसान यूनियन भानु
+91-8868098975
Founder at TEAM KP
Professional Engineering and Management Consultant and Trainer, 
जो लेख में आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं उसके लिए नीचे कुछ महत्वपूर्ण लिंक दिए गए हैं!
सूचना स्त्रोत:
#Kisan #Farmers #Farmer #Farmers_Protest #India #Economy 

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